Wednesday, April 18, 2012

रिज़वान के पहले दिन आध्यात्मिक सभा का चुनाव करें

पर्वराज रिज़वान का त्यौहार करीब आ चुका है। एक ओर जहाँ हम आध्यात्मिक उल्लास मनाते हैं वहीं दूसरी ओर अपने आध्यात्मिक दायित्व को रिज़वान के पहले दिन पूरा करते हैं। अपने आध्यात्मिक दायित्व को हम जानते हैं। हमारा आध्यात्मिक दायित्व है स्थानीय आध्यात्मिक सभा के चुनाव में हिस्सा लेना। यह काम खास तौर पर उन समुदायों के लिये जरूरी है जहाँ आमतौर पर आध्यात्मिक सभाओं के प्रति जागरूकता उतनी नहीं हुआ करती, जितनी विकसित अथवा विकासशील समुदाय समूहों में होती है।
विश्व न्याय मंदिर ने 17 जुलाई 2003 के अपने पत्र में इस बात पर चिन्ता व्यक्त की थी कि भारत में स्थानीय आध्यात्मिक सभाओं की संख्या में गिरावट आई है। प्राप्त आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि पिछले कुछ सालों से स्थानीय आध्यात्मिक सभाओं की संख्या लगातार कम होती चली जा रही है। सर्वोच्च संस्था की चिन्ता हम सब की चिन्ता का विषय होना चाहिये।
राष्ट्रीय आध्यात्मिक सभा ने राज्य बहाई परिषदों और राज्य प्रशासनिक समितियों को लिखे गये 16 मार्च 2004 के अपने पत्र में इस विषय की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया था।
विश्व न्याय मंदिर ने 31 दिसम्बर 1995 के अपने पत्र में लिखा था कि स्थानीय आध्यात्मिक सभा का चुनाव मुख्य रूप से क्षेत्र विशेष के बहाइयों का दायित्व है। सन् 1997 से पूरी दुनिया में स्थानीय आध्यात्मिक सभाओं का चुनाव केवल रिज़वान के पहले दिन ही किया जा रहा है अर्थात् 20 अप्रैल के सूर्यास्त के बाद और 21 अप्रैल के सूर्यास्त के पहले का समय आध्यात्मिक सभाओं के चुनाव का समय पूरी दुनिया के बहाई समुदाय के लिये निर्धारित किया गया है।
आप जानते हैं, बहाई चुनाव पूरी तरह से आध्यात्मिक माहौल में होता है, इस पर राजनीतिक चुनाव अर्थात् प्रचार, उम्मीदवारी आदि की काली छाया नहीं पड़नी चाहिये। आप यह भी जानते हैं कि प्रत्येक वयस्क बहाई (21 वर्ष अथवा इससे अधिक उम्र के) चुनाव में मतदान करते हैं। आप यह भी जानते हैं कि वैसे नौ लोगों के नाम हम मतपत्र पर लिखते हैं जिनकी प्रभुधर्म के प्रति वफादारी असंदिग्ध होती है, जो अनुभवी और समर्पित होते हैं। आइये यह जानें कि एक बहाई का सम्बन्ध स्थानीय आध्यात्मिक सभा के साथ क्या होना चाहिये। अब्दुल-बहा ने इस सम्बन्ध में लिखा है: ‘‘.....हर व्यक्ति के लिये यह आवश्यक है कि आध्यात्मिक सभा से परामर्श किये बगैर कोई भी कदम वह न उठाये और पूरे तन-मन से उसके आदेश के प्रति आज्ञाकारी बना रहे, ताकि सब कुछ व्यवस्थित ढंग से चल सके।’’ धर्मसंरक्षक का मार्गनिर्देश कुछ इस प्रकार है: ‘‘बिना किसी अपवाद के सब को, प्रभुधर्म के हित के सभी विषय व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक तौर पर उस स्थान की आध्यात्मिक सभा के पास ले जाना चाहिये, जो उस पर निर्णय लेगी..मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ और इस सिद्धांत के पक्ष में हूँ कि कुछ खास व्यक्तियों को वह केन्द्र नहीं बना लिया जाना चाहिये, जिनके गिर्द पूरा समुदाय चक्कर लगाये...’’ और अब जानें की आध्यात्मिक सभा का अपने अनुयायियों के साथ क्या सम्बन्ध होता है: ‘‘ जिन्हें मित्रों ने स्वतंत्रतापूर्वक और सोच-समझ कर अपने प्रतिनिधि के रूप में चुना है उनके कर्तव्य उनसे कम महत्वपूर्ण और नियंत्रणकारी नहीं हैं जिन्होंने उन्हें चुना है। उनका कर्तव्य आदेश देना नहीं, अपितु परामर्श करना है और केवल अपने बीच परामर्श नहीं करना है, अपितु जहां तक सम्भव हो उन मित्रों के साथ भी परामर्श करना है जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्हें अपने को प्रभुधर्म की सर्वाधिक प्रभावशाली और गरिमामय प्रस्तुति के साधन के अतिरिक्त कुछ और नहीं मानना चाहिये।.... उन्हें अपने कार्यों के प्रति अत्यन्त विनम्र रहना चाहिये और खुले दिमाग से यह कोशिश करनी चाहिये कि किस प्रकार मित्रों का कल्याण हो, प्रभुधर्म के हित में कार्य किया जाये, मानवता की भलाई की जा सके और किस प्रकार न केवल उनका विश्वास, सच्चा समर्थन तथा सम्मान वे प्राप्त कर सकें, जिनकी सेवा उन्हें करनी चाहिये, अपितु उनका सच्चा स्नेह और प्रेम भी वे पा सकें।’’

0 comments: