Monday, April 4, 2011

हिन्दुस्तान में भी फैल रहा है बहाई धर्म

अरब के देशों में परमात्मा को जानने और परमात्मा ही हो जाने वाले कुछ लोग हुये हैं। मगर उन्हें वहाँ की माटी ने स्वीकार नहीं किया। सुकरात ने ऐसा कुछ बोला तो उसे जहर दे दिया गया। मनसूर ने कहा- अनाहल हक अर्थात मैं ही खूदा हूं। तो लोगों ने मनसूर को सूली पर चढ़ा दिया। इस देश में परमात्मा को जानने और उस पर पहंुचने वाले बहुत लोग हुये। यहाँ ऐसा कुछ नहीं हुआ जो पश्चिम के देशों में हुआ हमने सभी को उनकी विशालता के अनुसार ही ग्रहण किया। यही कारण है कि यहाँ हूण, यमन, यहूदी, पारसी, मुसलमान, ईसाई और न जाने कौन-कौन आये और यहां समा गये। बहुत पुरानी बात नहीं है कुछ सौ साल पहले की बात है उदयपुर महाराणा की महारानी मीरा अपना राजमहल छोडकर वृन्दावन जा बसी। वह वृन्दावन की गलियों में नाच-नाच कर अपनी लय में खो जाती थी। उनकी सास ने अपने राजमहल की इज्जत को इस तरह मिटते हुये देख जहर भेज दिया। और उनसे कहा कि यह श्रीकृष्ण का प्रसाद है। मीरा ने श्रीकृष्ण का प्रसाद सुनकर उसको अपने गले में उतार लिया। पर मरी नहीं। सुकरात और मनसूर मर सकते हैं मगर मीरा अपने भक्ति के प्रताप से जिंदा रही। आज उसी मीरा की भारत भूमि पर इजराइल में पैदा हुआ मत इस देश में अपनी पैठ बनाता जा रहा है। अभी इस दुनिया में पचपन लाख इस धर्म के अनुयायी हैं जबकि भारत में लगभग बीस लाख। हमारे देश की विरासत कितनी प्रबल थी यह आज उस देश में बहाई मत का फैलाव बता रहा है। हम अपनी जडों से टूटकर दूर बिखर चुके हैं।

भारतीय उपमहाद्वीप का दिल्ली स्थित बहाई मन्दिर दुनिया के सात महत्वपूर्ण मन्दिरों में से एक है। इससे पूर्व के मन्दिर विलमेट, अमेरिका, कम्पाला, युगांडा, सिडनी, आस्ट्रेलिया, फ्रेंक फर्ट, जर्मनी, पनामा, एपिया और पश्चिम समोहा में स्थित है। कालका जी नई दिल्ली स्थित बहाई मताम्बलियों के अनुसार सात महत्वपूर्ण मन्दिर हैं। अब आंठवां पडाव वह चिली में बनाने वाले हैं। बनावट की दृष्टि से यह सभी मन्दिर अपने आप में अनूठे हैं। इन मन्दिरों में मनुष्य और ईश्वर की बीच की खाई को पेन से पाटने का पाठ सिखाया जाता है। धर्म, जातियों और विभिन्न नस्लों के नहीं अनेक राष्ट्रों के लोग यहां आमन्त्रित किये जाते हैं। नई दिल्ली के इस मन्दिर में आधे खिले कमल का रूप है। इसलिये इसे लोटस मन्दिर भी कहा जाता है। यह अत्यन्त सुन्दर फूल पवि़त्रता का प्रतीक माना जाता है। इस फूल को हमारे देश में फैले हुये मतावलम्बियों ने समान रूप से महत्व दिया है। इस मन्दिर के चारों ओर नौ तालाब बने हुये हैं। जिससे भवन की सुन्दरता और बढ़ जाती है। इन तालाबों में भरा हुआ निर्मल जल सौन्दर्य के साथ-साथ इस भवन के तापमान को भी नियंत्रित करता है। इस मन्दिर के सामने एक प्रशासनिक भवन है जिसमें पुस्तकालय, सभा भवन और श्रृव्य दृश्य का हाल है। बाहई मन्दिर के नौ किनारे यहाँ की व्यापकता, विभिन्नता ओर एकता का प्रतीक माने जाते है।

बहाई मन्दिर में उनके पवित्र ग्रन्थ का पाठ और गान किया जाता है। शेष समय शान्ति पूर्वक प्रार्थना और ध्यान के लिये बैठा जाता है। इस हाल नुमा मन्दिर में कोई भाषण या प्रवचन नहीं होता है। यहाँ धार्मिक अनुष्ठान भी नहीं होते हैं। भविष्य में यहां इस मत के अनुसार स्कूल, पुस्तकालय, अस्पताल, अनाथालय, निराश्रित और वृद्ध लोगों के रहने के स्थान बनने वाले हैं। इस मन्दिर की जमीन सन् 1953 में खरीद ली गयी थी, लेकिन इसका निर्माण कार्य 1980 में आरम्भ हुआ। 21 अप्रैल को आरम्भ होने के बाद इस मन्दिर का उद्घाटन सन् 1986 में हुआ था। इस प्रकार इस मन्दिर को बनने में लगभग साढे़ छः वर्ष लगे। इस मन्दिर की कमल पंखडिया सफेद पत्थर की बनी हुयी हैं जिनके ऊपर ग्रीक संगमरमर लगी हुयी है। इस मन्दिर के लिये खरीदी गयी जमीन 2606 एकड मन्दिर की ऊंचाई 34-27 मीटर है। इस मन्दिर का व्यास 70 मीटर है। भीतर की ओर से गुम्बद के ऊपरी शिखर पर तीन लकीरों जैसी कुछ भाषा लिखी है। जिसके विषय में यह लोग सविस्तार बताते हैं। यह परम महान नाम है इससे तीन साम्राज्यों का नाम पता चलता है। एक ईश्वरीय साम्राज्य फिर ईश्वरीय अवतार और अन्त में मनुष्य जाति इन तीनों को जोड़ने वाली एक खडी लकीर है जो धर्म के द्वारा ईश्वर तक पहुंचाने का माध्यम माना गया है। इन लकीरों के ईद-गिर्द दो सितारे चमकते हैं यह दोनों सितारे इन लोगों के मत के अनुसार बाब और बहाउल्लाह के प्रतीक हैं। दरअसल इस मत को पैदा करने वाला बाब फारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है द्वार। फारस के क्षेत्र में तेइस मई 1844 को बाब ने घोषणा की कि वह नई अध्यात्मिक विभूति के आगमन की घोषणा करने वाले हैं। उनका जन्म 1819 में हुआ था और उनको 1850 में इजराइल के अक्का नामक शहर में शहीद कर दिया गया। उसके बाद लगभग 20 हजार लोगों को अमानवीय यातना देकर मार डाला गया। लेकिन उनका मत मरा नहीं जिंदा रहा जिसका प्रचार प्रसार बहाउल्लाह ने किया।

बहाई मत के अनुयायी अपने मत को विश्व धर्म की संज्ञा देते हैं। यह लोग सभी को अपने में समा लेना चाहते हैं। अपने दृष्टिकोण में व्यापक, अपनी विधि में वैज्ञानिक और सिंद्धातों में मानववादी हैं। इनके आचार-विचार मनुष्यों के मानस पटल पर गतिशील प्रभाव छोडते हैं। यह लोग ईश्वर की एकता, उनके विभिन्न अवतारों की स्वीकृति और समस्त मानव जाति की एकता और अखंडता को मानते हैं। बाब के बाद बहाउल्लाह ने इस मत का प्रचार प्रसार किया। उनके नाम का अर्थ है ईश्वर के नाम का प्रताप। उनका जन्म 1817 में हुआ था। 1853 में जब वह कारागार में थे तो उन्हें अनुभव हुआ कि बाबा द्वारा घोषित प्रतिज्ञाबद्ध विभूति वह स्वयं हैं। 1863 में वह देश निकाले की सजा भुगतने के लिये बगदाद में थे वह 1892 तक इस दुनिया में रहे। उन्होंने अपने जीवनकाल में बाब के मत का प्रचार-प्रसार फारस, आटोमन, टर्की, भारत, बर्मा और सूडान में किया था। उन्होंने अपने 40 वर्ष के कारवास में हजारों लेख लिखे। जिनके आधार पर इस मत का ढांचा तैयार किया गया। उन्होंने अपनी वसीयत में अपने बडे़ लड़के अब्दुल बहा को इस मत के प्रचार-प्रसार के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और यूरोप में भेजा। अब्दुल बहा 1921 की 28 नवम्बर को हयाफ नामक स्थान पर इस दुनिया को छोडकर चले गये। इस मत के अनुयायी दुनिया में जैसे बढ़ रहे थे वैसे ही विवाद भी घर कर चुके थे। उन्होंने अपने नाती शोंगी एफेन्दी को इस मत का संरक्षक नियुक्त कर इस मत का बिखराव रोक लिया। उन्होंने इस मत के प्रचार-प्रसार के लिये 36 वर्षाे तक कठिन परिश्रम किया। उन्होंने विश्व न्यायाधिकरण की स्थापना मानव समाज में न्याय की महिमा, सेवा की भावना, राष्ट्र और लोगों की सुरक्षा की लिये धर्म की प्रतिष्ठा, आर्थिक समस्याओं का आध्यात्मिक समाधान और अपनी देश की सरकार के प्रति आज्ञाकारिता का भाव रखने की हिदायत दी। बहाउल्ला भी मानते थे कि सम्पूर्ण पृथ्वी एक देश और समस्त नागरिक इसके नागरिक हैं।



http://webvarta.com/script_detail.php?script_id=1006&catid=7 से लिया गया

1 comments:

Anonymous said...

पहली बार सुना इसके बारे में ,
अच्छा लगा