Monday, November 30, 2009

सच्चे जिज्ञासु को

हे बंधुवर जब कोई जिज्ञासु प्रभु-पथ प्रयाण करने का निश्चय कर ले तो सबसे पहले उसे प्रभु के रहस्यों के उदगम स्थल, अपने हृदय को निर्मल कर लेना चाहिये और मानवीय ज्ञान के दम्भ और शैतानी प्रवृत्तीयों एवं कामनाओं की धुंध फैलानेवाली धूल झाड लेनी चाहीये। वह अपने हृदय को अवश्य ही शुद्ध कर ले, जो प्रभु प्रेम का प्रसाद है। उसे अपनी आत्मा को सांसारिक मोह-माया से अलग कर लेना चाहिये। उसे अपना हृदय इतना पवित्र बना लेना चाहीये कि उसमें लौकिक प्रेम तथा घृणा का कोई भी अवशेष न बचे अन्यथा, प्रेम उसे गलत मार्ग का अंधानुकरण करने की ओर प्रवृत्त करेगा और घृणा उसे सत्यमार्ग से अलग कर देगी...

जिज्ञासु को सदैव प्रभु में विश्वास रखना चाहिये संसार के लोगों से मोह त्याग कर, धूल-सरीखे संसार से अनासक्त हो, स्वामियों के स्वामी (बहाउल्लाह) से प्रेम करना चाहीये। उसे कभी भी अपने को दूसरे से बडा नहीं समझना चाहीये। उसे उपने हृदय पटल से मिथ्याभिमान और दम्भ के हर निशान को मिटा देना चाहिये। उसे धैर्य और संतोष से काम लेना चाहिये, शांत रहना चाहिये और अनर्गल वार्तालाप से दूर रहना चाहिये...

जब जिज्ञासु के हृदय में प्रगाढ़ उत्सुक्ता, अथक प्रयास, समर्पित भक्ति, प्रज्वलित प्रेम, असीम आनंद और अपार संतोष की ज्योति प्रदीप्त होगी और प्रभु के प्रेममयी कृपा-वायु उसकी आत्मा में प्रवाहित होगी तब ही भ्रम का अंधकार दूर होगा, शंका और कुप्रवित्तियों की धुंध छटेगी और ज्ञान तथा आस्था का प्रकाश व्यक्तित्व को प्रकाशित करेगा।

बहाउल्लाह