Tuesday, March 15, 2016

Why didn't Shoghi Effendi write a will?


Mr Ali Nakhjavani shares some memories of Shoghi Effendi


Beautiful Baha'i Prayer in Abdul Baha's voice

Baha'i Writings about Haziratu'l-Quds (Baha'i Center)

Purpose and function of the Haziratu'l-Quds is to facilitate the spread of the Faith by enhancing its prestige, and acting as a "magnet for attracting the public" and a "rallying-centre" for teaching activities.

Shoghi Effendi, The Promised Day is Come

A tempest, unprecedented in its violence, unpredictable in its course, catastrophic in its immediate effects, unimaginably glorious in its ultimate consequences, is at present sweeping the face of the earth. Its driving power is remorselessly gaining in range and momentum. Its cleansing force, however much undetected, is increasing with every passing day. Humanity, gripped in the clutches of its devastating power, is smitten by the evidences of its resistless fury. It can neither perceive its origin, nor probe its significance, nor discern its outcome. Bewildered, agonized and helpless, it watches this great and mighty wind of God invading the remotest and fairest regions of the earth, rocking its foundations, deranging its equilibrium, sundering its nations, disrupting the homes of its peoples, wasting its cities, driving into exile its kings, pulling down its bulwarks, uprooting its institutions, dimming its light, and harrowing up the souls of its inhabitants.

"The time for the destruction of the world and its people," Bahá'u'lláh's prophetic pen has proclaimed, "hath arrived." "The hour is approaching," He specifically affirms, "when the most great convulsion will have appeared." "The promised day is come, the day when tormenting trials will have surged above your heads, and beneath your feet, saying: 'Taste ye what your hands have wrought!'" "Soon shall the blasts of His chastisement beat upon you, and the dust of hell enshroud you." And again: "And when the appointed hour is come, there shall suddenly appear that which shall cause the limbs of mankind to quake." "The day is approaching when its [civilization's] flame will devour the cities, when the Tongue of Grandeur will proclaim: 'The Kingdom is God's, the Almighty, the All-Praised!'" "The day will soon come," He, referring to the foolish ones of the earth, has written, "whereon they will cry out for help and receive no answer." "The day is approaching," He moreover has prophesied, "when the wrathful anger of the Almighty will have taken hold of them. He, verily, is the Omnipotent, the All-Subduing, the Most Powerful. He shall cleanse the earth from the defilement of their corruption, and shall give it for an heritage unto such of His servants as are nigh unto Him."

"As to those who deny Him Who is the Sublime Gate of God," the Báb, for His part, has affirmed in the Qayyum-i-Asma', "for them We have prepared, as justly decreed by God, a sore torment. And He, God, is the Mighty, the Wise." And further, "O peoples of the earth! I swear by your Lord! Ye shall act as former generations have acted. Warn ye, then, yourselves of the terrible, the most grievous vengeance of God. For God is, verily, potent over all things." And again: "By My glory! I will make the infidels to taste, with the hands of My power, retributions unknown of anyone except Me, and will waft over the faithful those musk-scented breaths which I have nursed in the midmost heart of My throne."

Dear friends! The powerful operations of this titanic upheaval are comprehensible to none except such as have recognized the claims of both Bahá'u'lláh and the Báb. Their followers know full well whence it comes, and what it will ultimately lead to. Though ignorant of how far it will reach, they clearly recognize its genesis, are aware of its direction, acknowledge its necessity, observe confidently its mysterious processes, ardently pray for the mitigation of its severity, intelligently labor to assuage its fury, and anticipate, with undimmed vision, the consummation of the fears and the hopes it must necessarily engender.

(Shoghi Effendi, The Promised Day is Come, p. 3)

Tuesday, March 8, 2016

बहाई उपवास

01 मार्च से 19 मार्च

“हे दिव्य विधाता ! विरक्त हूँ जिस तरह मैं दैहिक कामनाओं, अन्न और जल से, मेरा हृदय भी शुद्ध और पावन कर दे वैसे ही, अपने अतिरिक्त अन्य सब के प्रेम से। भ्रष्ट इच्छाओं और शैतानी प्रवृत्तीयों से मेरी आत्मा को बचा, इसकी रक्षा कर, ताकि मेरी चेतना पवित्रता की सांस के साथ संलाप कर सके और तेरे उल्लेख के सिवा अन्य सब का परित्याग कर सके।”
-अब्दुल-बहा

बदी कैलेण्डर के अनुसार उपवास का महीना 1 मार्च से 19 मार्च है और इसे हम अला (उच्चता) का महीना कहते हैं। इस दौरान सूर्योदय से सूर्यास्त तक हम अपने को अन्न’जल से दूर रखते हैं और संयमित रहते हैं। जो सीमायें तय की गई हैं उन्हें लांघने की छूट किसी को भी नहीं है और न ही किसी को अपनी इच्छा और कोरी कल्पना के अनुसार इस विधान का अनुपालन करने का अधिकार है। सच, वे सौभाग्यशाली हैं जो उपवास की ऊर्जा से प्रभु के प्रति अपने प्रेम को प्रगाढ़ करते हैं। हालाँकि ऊपर से उपवास कठिन (कष्ट साध्य) लगता है, लेकिन अंदर से यह हमें अकथनीय प्रसन्नता से भर देता है। उपवास के द्वारा शुद्धिकरण का मार्ग प्रशस्त होता है। उपवास में असंख्य लाभ छिपे हुये हैं। 19 दिनों का उपवास मानवजाति के लिये बहाउल्लाह के अनेक उपहारों में से एक है। इन 19 दिनों के दौरान प्रत्येक दिन लगभग 12 घंटे तक खाने-पीने पर हम आत्मनियंत्रण रखते हैं, इन बारह घंटों के दौरान हम अन्न-जल कुछ भी ग्रहण नहीं करते यानि निर्जला उपवास धारण करते हैं। शरीर-विज्ञान की दृष्टि से देखें तो उपवास के इन बारह घंटों के दौरान भी हमारे शरीर के क्रियाकलाप सामान्य ढंग से संचालित रहते हैं। बहाई लेख हमें बतलाते हैं कि खान-पान पर रोक रखना ही उन्नीस दिनों के उपवास का मूल उद्देश्य नहीं है, बल्कि यह किसी अन्य महानतर उद्देश्य का चिन्ह है। उन्नीस दिनों की यह एक आध्यात्मिक यात्रा है, यह आत्मनियंत्रण और प्रगाढ़ रूप से प्रभु-चिन्तन का काल है।

उपवास के दौरान हम मन, वचन, चिन्तन और कर्म से अपने आपको शुद्ध और पवित्र रखने का सम्पूर्ण प्रयास करते हैं और इस प्रयास में जब सफल होते हैं तब स्वयं ऐसे आध्यात्मिक सुख और संतोष का अनुभव करते हैं, जिसका वर्णन शब्दों में करना मुश्किल है। सच तो यह है कि ईश्वर का धर्म आसमान की तरह विशाल है। उपवास इसका सूर्य है और अनिवार्य प्रार्थना इसका चन्द्र। ये दोनों धर्म के ऐसे आधार स्तम्भ हैं जिनके सहारे अच्छे कर्म करने वालों को वैसे लोगों से अलग रखा जाता है जो ईश्वर के आदेशों का अनुपालन नहीं करते हैं। जब हम प्रार्थना करना शुरू करें तब अपने को हर दुनियावी विचारों और वस्तुओं से अलग कर लें और कुछ इस प्रकार ईश्वर की इच्छा और उसके उद्देश्य के प्रति समर्पित हो जायें कि ईश्वर के सिवा अन्य कोई विचार मन में न आये। तब हमारी प्रार्थना स्वर्ग तक आरोहण करने की सीढ़ी बन जाती है और उपवास हमें सभी कुछ से अनासक्त कर केवल ईश्वर के विषय में सोचने के लिये प्रेरित करती है।

परम प्रिय मित्रगणों, हम कितने सौभाग्यशाली हैं कि बहाउल्लाह ने बहाइयों के लिये यह विधान दिया है। परम पावन पुस्तक ‘किताब-ए-अकदस’ में प्रौढ़ता (15 वर्ष की आयु) प्राप्त कर लेने के बाद अनिवार्य प्रार्थना एवं उपवास धारण करने का आदेश दिया गया है। यह ईश्वर द्वारा आदेशित विधान है। बहाई उपवास का समय निर्धारित है - 01 मार्च से 19 मार्च तक सूर्योदय के बाद और सूर्यास्त के पहले हम अन्न-जल ग्रहण नहीं करते। इस आध्यात्मिक दायित्व से उनको छूट दी गयी है जो बीमारी अथवा अधिक आयु के बाद शारीरिक रूप से असक्त हैं और जिनके लिये एक निर्धारित समय अंतराल के बाद दवा व भोजन लेना आवश्यक है, जो यात्रा कर रहे हैं या वैसी महिलायें जो गर्भवती हैं या बच्चों को स्तनपान कराती हैं।

उपवास के दौरान दान देने के आध्यात्मिक सुख और सहभोज से मिलने वाली प्रसन्नता के कारण ये 19 दिन बहाई जीवन-शैली में खास स्थान रखते हैं। खाने-पीने के लोभ पर नियंत्रण के अलावा आध्यात्मिक जीवन में भी उपवास की महत्वपूर्ण भूमिका है जिसका वर्णन बहाउल्लाह ने इन शब्दों में किया है: “उपवास और प्रार्थना मानव-जीवन के दो पंखों के समान हैं। आशीर्वादित है वह जो इनकी मदद से उड़ान भर कर सभी लोकों के स्वामी प्रभु के प्रेम के स्वर्ग में प्रवेश करता है।” अब्दुल-बहा ने भी कहा है, “आराधना-जगत में उपवास और अनिवार्य प्रार्थना प्रभु के पावन विधान के दो शक्तिशाली स्तम्भ हैं।” “स्तम्भ” शब्द का प्रयोग किसी विशाल भवन को सहारा देने वाले बुनियादी और मजबूत सम्बल के रूप में किया जाता है। इन मजबूत स्तम्भों के अभाव में भवन का सकुशल खड़ा रहना संभव नहीं है और इन दो आध्यात्मिक कर्तव्यों को पूरा किये बगैर हम अपने आध्यात्मिक जीवन को बनाये नहीं रख सकते। ये आध्यात्मिक स्तम्भ हमें स्थिरता और दृढ़ता प्रदान करते हैं। हमारे जीवन में, चाहे कैसी भी कठिनाइयों का दौर हो या सामान्य से अधिक सुख-चैन के दिन, ये स्तम्भ हमें अडि़ग बनाये रखते हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि उपवास एक चिन्ह है। यह लोभ-लालसा के प्रति आत्मनियंत्रण का महत्व रेखांकित करता है और हमें याद दिलाता है कि जैसे हम अपनी भूख पर नियंत्रण रख सकते हैं वैसे ही हम अपनी भौतिक और दैहिक लालसाओं पर भी नियंत्रण रख सकते हैं। सच कहें तो उपवास एक आध्यात्मिक अभ्यास है, चिन्तन-मनन और ध्यान के 19 दिनो का, जो नियमित दिनचर्या और भौतिक सुखों से थोड़ा अलग हटकर जीने का अवसर प्रदान करता है। हम भूख पर तो नियंत्रण रखते ही हैं, अपने अस्तित्व की समस्त इच्छाओं, समस्त कामनाओं से ‘अनासक्त’ हो जाना ही उपवास का महत्तर उद्देश्य है। ‘अनासक्ति’ हमें कम-से-कम आत्मकेन्द्रित और आध्यात्मिक उद्देश्यों के प्रति अधिक-से-अधिक जागरूक करती है। ‘अनासक्ति’ की स्थिति को प्राप्त करना दरअसल महज इन उन्नीस दिनों के लिये नहीं है, अपितु इन उन्नीस दिनों से शुरू होने वाली हमारी आध्यात्मिक यात्रा अनवरत जारी रहनी चाहिये। इसीलिये बहाउल्लाह ने प्रतिदिन सुबह-शाम प्रार्थना और चिन्तन-मनन को प्रत्येक बहाई के लिये अनिवार्य बतलाया है। ‘अनासक्ति’ का अर्थ अब्दुल-बहा ने सरल शब्दों में समझाया है: “अनासक्ति का अर्थ अपने घर को आग लगा देना नहीं है, दिवालिया हो जाना या अपनी सम्पत्ति उठाकर खिड़की से बाहर फेंक देना या फिर अपना सब कुछ त्याग देना नहीं है। अनासक्ति का अर्थ है अपनी सम्पत्ति का गुलाम न बन जाना।” ‘अनासक्ति’ का अर्थ यह भी नहीं है कि हम अपना घर-द्वार छोड़कर जंगल में चले जायें और भूखे पेट बैठकर भजन गायें। अनासक्ति का अर्थ यह है कि सब कुछ होते हुए भी उसके प्रति मोह न रखें। यही अनासक्ति महत्तर उद्देश्य है उपवास का।

सत्य ही, मैं कहता हूँ, उपवास सर्वोच्च उपचार और सर्वमहान आरोग्य है स्वार्थ और वासना के रोग से मुक्ति का। उपवास व्यक्ति के आध्यात्मिक स्थान को उन्नत करने का कारण बनता है।

उन्नीस दिनों के उपवास से ठीक पहले 26 फरवरी से 29 फरवरी तक की अवधि को बहाई अधिदिवस कहते हैं। अधिदिवस को ’अय्याम-ए-हा‘ अथवा ‘उल्लास के दिन’ भी कहा जाता है। उपवास के लिए तैयारियों का समय होने के अलावा बहाउल्लह ने इसे दान का समय कहा है। जिसके बाद आत्मनियंत्रण की अवधि आती है। बहाउल्लाह कहते हैं: “बहा के लोगों के लिये उपवास के ये दिन स्वयं को, अपने सगे-सम्बन्धियों को और इनसे भी परे जाकर निर्धनों और जरूरतमंदों को खुशियाँ देने के दिन हैं, हर्ष और उल्लास के साथ अपने स्वामी के यशगान के दिन हैं, प्रभु की प्रशंसा और उनके नाम के महिमामंडन के दिन हैं।”

उपवास के बाद 20 मार्च को यानि बसंत ऋतु की उस तिथि को जब रात और दिन बराबर होते हैं “नवरूज़” या नवदिवस का उत्सव मनाया जाता है। यह बहाई नववर्ष का पहला दिन है। बहाउल्लाह ने नवरूज़ को एक सहभोज के रूप में मनाने का निर्देश दिया है। प्रिय धर्मसंरक्षक शोगी एफेंदी कहते हैं, ”वर्ष का यह वह समय है जब पूरी दुनिया का मौसम सबसे अधिक सुहावना होता है। इसलिये यह नये वर्ष के आरम्भ का उपयुक्त समय है जो उपवास के पावन माह (अला) के बाद आता हैं।”