Thursday, June 30, 2011

हम सभी को ईश्वर के नजदीक से नजदीक पहुँचने का प्रयास करना होगा

परमप्रिय मित्रों,
    जैसे-जैसे हम ईश्वरीय लघुयोजना के प्रावधानों को लागू करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, हमें सतर्क रहना होगा कि हम इस तरफ से अनभिज्ञ न हो जायें कि हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है।  मूलगतिविधियों में बढ़ोत्तरी, गृह-भ्रमणों का आयोजन, योजना तथा योजना पर कार्यरत होना हमारी विकास प्रक्रिया का बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू है, परन्तु जैसे-जैसे हम अपनी सामाजिक अनिवार्यताओं को पूरा करने के लिये आगे बढ़ें, हम सभी को ईश्वर के नजदीक से नजदीक पहुँचने का प्रयास करना होगा।
    बहाउल्लाह हमसे कहते है ”अपने स्वामी के धर्म की शिक्षा देने के लिए तुमसे से जो कोई भी उठ खड़ा हो, उसे सभी कुछ से पूर्व स्वयं को शिक्षित करना चाहिए, जिससे उसकी वाणी उनके हृदयों को आकर्षित कर सके जो उसको सुनते हैं। जबतक वह स्वयं को शिक्षित नहीं कर लेता तबतक उसके मुख से निकले शब्द जिज्ञासुओं को प्रभावित नहीं करेंगे।  ध्यान दो, ओ लोगों, तुम उन जैसे न बनो जो दूसरों को अच्छा परामर्श देते हैं परन्तु स्वयं उनका अनुपालन करना भूल जाते हैं...।”
    क्या ऐसा व्यक्ति हमेशा किसी को प्रभावित करने में सफल हो सकता है यह सफलता स्वयं उसकी नहीं होगी, परन्तु वह ईश्वरीय शब्दों के माध्यम से प्रभावित होगा, ऐसा ही आदेशित किया गया है उसके द्वारा जो सर्वज्ञाता, सर्वबुद्धिमान है।  ईश्वर की दृष्टि में ऐसा व्यक्ति मोमबत्ती की तरह है जो उसके प्रकाश को बिखेरता है और स्वयं को उसी में निमज्जित करता जाता है।
    ईश्वर के अवतार को पहचानना हमारा पहला कर्तव्य है, उसकी आज्ञाओं का अनुपालन इसके पश्चात आता है।  यद्यपि हमें यह भी समझने की आवश्यकता है कि पहचानना केवल एक बार की ही चीज नहीं है।  एकबार जब हम इस युग के ईश्वरीय अवतार को पहचान लेते हैं हमारे लिए आवश्यक है कि हम उसके नजदीक से नजदीक होते जायें। हमारे लिए आवश्यक होगा कि आध्यात्मिकता में हम दिन-प्रतिदिन विकास करें।  निश्चय ही हमारे आध्यात्मिक विकास के बहुत से पहलू हैं, जैसे हम मूलगतिविधियों में सेवा करने के लिए उठ खड़े हो, इससे हमारी आस्था विकसित होती है और हम आध्यात्मिकता में विकास करते हैं।  परन्तु अकेला यही काफी नहीं है: प्रार्थना, चिन्तन, पवित्र लेखनियांे का अध्ययन व उनको अपने अभ्यास में लाना आध्यात्मिकता में विकास करने के अन्य पहलू हैं।
    ये दो प्रक्रियों वास्तव में एक साथ जुड़ी हैं।  हम प्रार्थना करते हैं और प्रार्थना में ईश्वर के नजदीक होते जाते हैं।  तत्पश्चात, उसके निमित्त सेवा के कार्यो का आयोजन करते हैं व इनके माध्यम से हमारी आस्था में बढ़ोत्तरी होती है, हम और अधिक व्यग्रता के साथ प्रार्थना करते हैं व अपने सेवा की गतिविधियों हेतु ईश्वर से सहायता हेतु याचना करते हैं।
    अतः हम यह न भूलें कि हमें दिन-प्रतिदिन आध्यात्मिकता की राह में विकास करने की आवश्यकता है।  प्रियधर्मसंरक्षक हमें कहते हैं “....आध्यात्मिकता किस तरह प्राप्त की जाय सचमुच ही एक ऐसा प्रश्न है जिसका संतोषजनक समाधान प्रत्येक युवा पुरूष स्त्री को देर सबेर अवश्य प्राप्त करने का प्रयास करना चहिये।  क्योंकि आधुनिक युवापीढ़ी को इस प्रश्न का कोई संतोषजनक समाधान नहीं दिया गया है और न ही उसने पाया है इसलिये आज की युवा पीढ़ी अपने को भ्रमित पाती है।  भौतिक प्रबल प्रचंडता जो मनुष्य के नैतिक और आध्यात्मिक जीवन की आधारगत नींव को ही जड़ से उखेड फेंक रही है, उसे अपनी ओर घसीट रही है....। क्योंकि धार्मिक आस्था का बीजकोष वह गुहय रहस्यमय भावना है जो मनुष्य को ईश्वर से मिलती है।  यह आध्यात्मिक घनिष्ठता की अवस्था प्रार्थना और गहन चिन्तन के द्वारा लायी और सम्पोषित की जा सकती है।  यही कारण है कि बहाउल्लाह ने उपासना के महत्व पर जोर दिया है।
    श्रद्धावान अनुयायी के लिए उपदेशों को मात्र स्वीकार करना और उनका पालन करना ही यथेष्ठ नहीं है।  इनके अतिरिक्त उसे वह आध्यात्मिक भावना पैदा करनी चाहिए, जिसकी प्राप्ति उसे मुख्यतः प्रार्थना द्वारा ही हो सकती है...।
    श्रद्धालु अनुयायी विशेषकर युवाजनों को प्रार्थना की अनिवार्यता पूरी तरह चरितार्थ करनी चाहिए।  क्योंकि उनके आध्यात्मिक विकास के लिए प्रार्थना नितांत अपरिहार्य है और जैसा कि पहले कहा जा चुका है, यही ईश्वरीय धर्म का आधार और प्रयोजन है।”
    प्रार्थना एवं पवित्र लेखनियों का अध्ययन कभी भी यान्त्रिक प्रक्रिया नहीं होनी चाहिए।  कभी-कभी हम इतना अधिक शीघ्रता में होते हैं कि हम यान्’ित्रक तरीके से अनिवार्य प्रार्थना के शब्दों को कहकर अपने जीवन के कार्यो में व्यस्त हो जाते हैं।  हमें वास्तव में प्रार्थना के लिए अवश्य ही आवश्यक समय निकालने की जरूरत है।  हमें प्रार्थना के शब्दों पर चिन्तन करने की आवश्यकता है।  आध्यात्मिक दशा हेतु, जो मनुष्य को ईश्वर के साथ एक रहस्मय भावना के साथ जोड़ता है ईश्वरीय शब्दों को शीघ्रता के साथ कहे जाने पर स्थापित नहीं किया जा सकता।  हमें ईश्वर के शब्दों पर चिन्तन की आवश्यकता है।
    बहाउल्लाह हमें कहते हैं, “अगर कोई मनुष्य सर्वोच्च की लेखनी से प्रकटित शब्दों का अपने हृदय में मनन तथा उसके माधुर्य का आस्वादन करे तो वह निश्चय ही अपने को अपनी ही कामनाओं से रहित और मुक्त तथा अपने को सर्वशक्तिमान की इच्छा के सम्पूर्णतया वश्य पायेगा।  वह मनुष्य सुखी है जिसने ऐसा उन्नत स्थान प्राप्त कर लिया है, ऐसे उदार अनुग्रह से अपने को वंचित नहीं किया है।“
    जब हम अपनी प्रार्थनायें कहने के लिये जायें तो हमें स्वयं को आध्यात्मिक रूप से तैयार करने की आवश्यकता हैं।  हमें स्वयं को याद दिलाना है कि हम बहाउल्लाह के समक्ष उपस्थित होने जा रहे हैं तथा हमें आध्यात्मिक रूप से तैयार व विनम्र महसूस करने की भी आवश्यकता होगी।  यह प्रार्थना जो अब्दुलबहा की समाधि पर उपयोग में लाई जाती है हमारे लिए एक अच्छी यादगार होगी कि हमें प्रार्थना से पहले कैसा महसूस करना चाहिए।
    वह सर्वमहिमामय है !
    हे ईश्वर, मेरे ईश्वर ! दीन और अश्रुपूरित मैं। अपने याचक हाथ तेरी ओर फैलाता हूँ और अपना मुखड़ा तेरे द्वार की उस धूल से मंडित करता हूँ, जो विद्वानों के ज्ञान और उन सबकी स्तुति से परे है, जो तेरा महिमागान करते हैं।  अपने द्वार पर खड़े अपने दीन और विनीत सेवक को अनुग्रहपूर्वक देख, उस पर अपनी करूणा भरी आॅंखों की दयादृष्टि डाल और उसे अपनी अनन्त कृपा के सागर में निमग्न कर दे।
    हे नाथ ! यह तेरा दीनहीन सेवक है, विनीत, पूरी आस्था के साथ तेरे ही हाथों में अपने आपको समर्पित करते हुए, अत्यन्त भक्तिभाव से, आॅंसू भरे नयन के साथ तुझे पुकार रहा है और कह रहा है:
    हे नाथ, मेरे परमेश्वर ! मुझे अपने प्रियजनों की सेवा करने की कृपा प्रदान कर, अपने प्रति मेरे सेवाभाव को दृढ़ कर, अपनी पावनता के दरबार और महिमामय भव्य साम्राज्य में स्तुति और प्रार्थना के प्रकाश से मेरा मस्तक आलोकित कर दे और अपनी महिमा के साम्राज्य की प्रार्थना की ज्योति प्रदीप्त कर दे।  अपने स्वर्गिक प्रवेश द्वार पर स्वार्थविहीन बनने में मेरी सहायता कर और अपनी पवित्र सीमा में सभी वस्तुओं से अनासक्त रहने में मुझे समर्थ बना दे।  हे नाथ, निःस्वार्थता के पात्र से मुझे पान करने दे, निःस्वार्थता का ही वस्त्र मुझे पहना और इसके महासिंधु में निमग्न कर दे मुझको।  बना दे मुझे अपने प्रियजनों की राहों की धूल और मुझे ऐसा दान दे कि मैं, अपनी आत्मा उस धरती के लिये बलिदान कर सकूँ जिस पर, तेरी राह में तेरे प्रियजन चले हों, हे सर्वोच्च महिमा के स्वामी !
    इस प्रार्थना के द्वारा तेरा यह सेवक तुझे दिन-रात पुकारता है, इसके हृदय की अभिलाषा पूरी कर दे, हे स्वामी! इसके हृदय को प्रकाशित कर दे, इसके अंतर को आनंदित कर दे, इसकी ज्योति जला दे, ताकि यह तेरे धर्म और तेरे सेवकों की सेवा कर सके।
    तू ही दाता है, करूणामय है, परम दयालु, है कृपालु!

 प्रिय मित्रों, जैसाकि संसार अधिकाधिक भौतिकता के साथ उलझता जा रहा है, हमें ध्यान रखना है, एक बहाई के रूप में हमें अधिकाधिक आध्यात्मिक होना है।  हमें अब्दुल-बहा की इच्छा को परिपूर्ण करना है जो कहते हैं, “तुम्हारे लिए मेरी इच्छा आध्यात्मिक श्रेष्ठता की है, तुम नैतिकता में अवश्य ही उच्च एवं श्रेष्ठ बन सको।  ईश्वर के प्रेम के निमित्त तुम अवश्य ही सभी कुछ से श्रेष्ठ बनो।  तुम मानवता के प्रेम के लिए अवश्य ही श्रेष्ठ बनो, सभी के लिए एकता, प्रेम एवं न्याय।  विस्तार में, तुम मानवता के संसार में सभी गुणों में श्रेष्ठतम बनो।“
   
प्रेमपूर्ण बहाई शुभकामनाओं के साथ,
रीजनल बहाई काउंसिल, उत्तर प्रदेश, दिल्ली एवं उत्तरांचल

सूचना: बहाई उपासना मंदिर, नई दिल्ली के आयोजित हो रहे 25वीं वर्षगाठ समारोह का आयोजन नवम्बर माह की 12 व 13 तारीख को हो रहा है।  इस समारोह में सम्मिलित होने का रजिस्ट्रेशन 15 सितम्बर तक किये जा रहे है अतः आप अपना रजिस्ट्रेशन सीधेतौर पर www.bahaihouseofworship.in  करा सकते हैं या समयपूर्व रीजनल बहाई काउंसिल कार्यालय को सूचित कर सकते हैं।

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